अब कोई आस न उम्मीद बची हो जैसे
अब कोई आस न उम्मीद बची हो जैसे
तेरी फरियाद मगर मुझमे दबी हो जैसे
जागते जागते इक उम्र
कटी हो जैसे
जागते जागते इक उम्र
कटी हो जैसे
अब कोई आस न उम्मीद बची हो जैसे
“लाइफ में जो हम चाहते हैं
और जो हम चुनते हैं
उसके बीच में हमारी कमजोरी छुपी होती है
और कभी-कभी ताकत”
कैसे बिछड़ो के
वोह मुझमे
कहीं रहता है
उस से जब बचके गुज़रता हूँ
तोह ये लगता है
वोह नज़र चुप के
मुझे देख रही हो जैसे
हम्म हम्म..